अनिल त्रिपाठी ने स्वतंत्रता सेनानी रामबचन सिंह का चौमहला मकान देखते हुए कहा कि
बाबा पर भूत सवार था कि देश ही परिवार है
और आजादी के बाद वे ग्राम स्वराज का मूर्दा सपना देखते रहे
जवाहिर लाल और कमलापति त्रिपाठी के भेजे चिट्ठियों के गट्ठर को याद करते भाई अनिल ने कहा कि
यदि बाबा एक बार भी कमलापति को संकेत करते
तो मुमकिन था कि पिता अच्छी जगह पर रहते
परंतु पिता ऐसे वकील थे कि
आई0पी0सी0 से ज्यादा रामचरितमानस का पन्ना उलटाते थे
जमते कचहरी से ज्यादा गोष्ठियों ,सेमिनारों,चौराहों पर
खरे खर्रुश लंठ थे
मुंहफट थे चंठ थे
दुश्मनी का कम मौका छोड़ते थे
फिर भी कुछ शुभचिंतक थे
जिन्हें चिंता थी कि पांच बेटा को वीरेंद्र कैसे पोसेगा
और उन्होंने आटाचक्की -स्पेलर लगाने की सलाह दी
आटा मसल्ला तेल की समस्या भी खतम
और पांचों बेटे खप भी जाएंगे
और पिता परेशान कि दुनिया का कौन सा धंधा शुरू करें
कि इज्जत ,पुस्तैनी जमीन और जान बचे
महीनों की मथचटनी के बाद पिता ले आए एक प्रेस
और यह बाजार की दूसरी प्रेस थी
पिता सोचे कि ससुर लोग पढ़ाई लिखाई में ही तो लगे रहेंगे
हम लोग असूर्यपश्या हो गए
दिन रात लगे रहते कंपोजिंग ,टाईपिंग में
दादी कहती कि ई वीरेंद्र मार देगा बच्चों को
और तभी पिता बन गए प्रकाशक-मुद्रक-संपादक 'अचिरावती ' के
उन दिनों हम पांचों भाई मगन हो कम्पोज करते थे
उन पत्रों की कंपोजिंग करते हम बहुत खुश होते थे
जिसमें 'अच्छा प्रयास' ,अद्भुत ,' प्रशंसनीय' ,'अतुलनीय' लिखा होता था
बेतिया बिहार के सुधीर ओझा का ललित निबंध कंपोज करने के लिए हम भाईयों में बहस हो जाती थी
और एक बार तो बाकायदा पिता ने इन्हें सम्मानित करने की घोषणा कर दी
और ओझा जी एक साल तक पत्र भेजते रहे कि जनाब सम्मान में क्या है
कितनी राशि ,कब दोगे ,आदि आदि
और एक बार तो उन्होंने क्रोध में भी पत्र लिख दिया
अब तक भाई अनिल और हम कलेक्ट्रेट तक आ गए थे
और कलेक्ट्रेट के मीनार पर लगे घड़ी को देखते हुए उन्होंने कहा कि
ओझा जी का एक सौ इक्याबन अभी भी बकाया है
कभी कभी प्रभा खेतान और विवेकी राय की कविताएं भी आ जाती थी
एक बार तो अमृत राय की रचना भी आई
जब अजय भैया ने अग्निशिखा खोल के लिखा कि
केवल बड़ी पत्रिका को ही आप लोग रचना देंगे क्या
बात इतनी ही नही थी पाठक जी
अचिरावती का संपादन महीने के गेहूं ,चावल ,दाल के कोटे को घटाकर भी किया गया
वे भी कठिन दिन थे
और हमें भी अपना गाम याद आया
और गरीबी के वे अन्न मड़ुआ ,जौ ,सामा ,कोदो
करमी ,बथुआ का स्वर्गिक साथ
जॉगिंग करते हुए अनिल ने बताया कि
अब भी पत्रिका नाम बदलकर चलती है
अच्छे अच्छे लेखक और साफ सूतरे पन्नों के साथ
चमकदार कवर और रंग के साथ
परंतु उन दिनों की 'अचिरावती' अलग थी
उस रोशनाई में हमारे खानदान का पसीना मिला था
बाबा पर भूत सवार था कि देश ही परिवार है
और आजादी के बाद वे ग्राम स्वराज का मूर्दा सपना देखते रहे
जवाहिर लाल और कमलापति त्रिपाठी के भेजे चिट्ठियों के गट्ठर को याद करते भाई अनिल ने कहा कि
यदि बाबा एक बार भी कमलापति को संकेत करते
तो मुमकिन था कि पिता अच्छी जगह पर रहते
परंतु पिता ऐसे वकील थे कि
आई0पी0सी0 से ज्यादा रामचरितमानस का पन्ना उलटाते थे
जमते कचहरी से ज्यादा गोष्ठियों ,सेमिनारों,चौराहों पर
खरे खर्रुश लंठ थे
मुंहफट थे चंठ थे
दुश्मनी का कम मौका छोड़ते थे
फिर भी कुछ शुभचिंतक थे
जिन्हें चिंता थी कि पांच बेटा को वीरेंद्र कैसे पोसेगा
और उन्होंने आटाचक्की -स्पेलर लगाने की सलाह दी
आटा मसल्ला तेल की समस्या भी खतम
और पांचों बेटे खप भी जाएंगे
और पिता परेशान कि दुनिया का कौन सा धंधा शुरू करें
कि इज्जत ,पुस्तैनी जमीन और जान बचे
महीनों की मथचटनी के बाद पिता ले आए एक प्रेस
और यह बाजार की दूसरी प्रेस थी
पिता सोचे कि ससुर लोग पढ़ाई लिखाई में ही तो लगे रहेंगे
हम लोग असूर्यपश्या हो गए
दिन रात लगे रहते कंपोजिंग ,टाईपिंग में
दादी कहती कि ई वीरेंद्र मार देगा बच्चों को
और तभी पिता बन गए प्रकाशक-मुद्रक-संपादक 'अचिरावती ' के
उन दिनों हम पांचों भाई मगन हो कम्पोज करते थे
उन पत्रों की कंपोजिंग करते हम बहुत खुश होते थे
जिसमें 'अच्छा प्रयास' ,अद्भुत ,' प्रशंसनीय' ,'अतुलनीय' लिखा होता था
बेतिया बिहार के सुधीर ओझा का ललित निबंध कंपोज करने के लिए हम भाईयों में बहस हो जाती थी
और एक बार तो बाकायदा पिता ने इन्हें सम्मानित करने की घोषणा कर दी
और ओझा जी एक साल तक पत्र भेजते रहे कि जनाब सम्मान में क्या है
कितनी राशि ,कब दोगे ,आदि आदि
और एक बार तो उन्होंने क्रोध में भी पत्र लिख दिया
अब तक भाई अनिल और हम कलेक्ट्रेट तक आ गए थे
और कलेक्ट्रेट के मीनार पर लगे घड़ी को देखते हुए उन्होंने कहा कि
ओझा जी का एक सौ इक्याबन अभी भी बकाया है
कभी कभी प्रभा खेतान और विवेकी राय की कविताएं भी आ जाती थी
एक बार तो अमृत राय की रचना भी आई
जब अजय भैया ने अग्निशिखा खोल के लिखा कि
केवल बड़ी पत्रिका को ही आप लोग रचना देंगे क्या
बात इतनी ही नही थी पाठक जी
अचिरावती का संपादन महीने के गेहूं ,चावल ,दाल के कोटे को घटाकर भी किया गया
वे भी कठिन दिन थे
और हमें भी अपना गाम याद आया
और गरीबी के वे अन्न मड़ुआ ,जौ ,सामा ,कोदो
करमी ,बथुआ का स्वर्गिक साथ
जॉगिंग करते हुए अनिल ने बताया कि
अब भी पत्रिका नाम बदलकर चलती है
अच्छे अच्छे लेखक और साफ सूतरे पन्नों के साथ
चमकदार कवर और रंग के साथ
परंतु उन दिनों की 'अचिरावती' अलग थी
उस रोशनाई में हमारे खानदान का पसीना मिला था
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