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Saturday, 4 February 2012
नि:शब्द :प्रतिमा राकेश की कविताऍं
प्रतिमा राकेश जीवन के हर पड़ाव पर कुछ देर रूकती हैं ,एक यात्री की तरह ,एक कवयित्री की तरह ।इस ठहराव की दृष्टि कभी बौद्धिक रही है ,कभी भावुकता से भरी ।पथ के सुनिर्मित अवरोध(ब्रेकर)कभी प्यारे लगते हैं ,तो कभी ‘कपड़ों की व्यर्थ शरम ‘ की तरह । कवयित्री शिल्प के उबड़ खाबड़ से चकित करती ,विषयों के चयन तथा दृष्टि से आश्वस्त करती है ।‘नि:शब्द’ में दो तरह की कविताएं हैं ,पहली तो वे कविताएं ,जिन्हें छायावादी दृष्टि या आत्मपरक दृष्टि से लिखी गई है ।यह आधुनिक हिंदी कविता के ही द्विवेदी या छायावादी युग का विस्तार लगता है
नन्हे नन्हे डगमग डगमग
जब कदम तुम्हारे उठते थे
सौ सौ स्वर्गों से देश मेरे
आंचल में आकर बसते थे ।(पुत्र मोह)
‘बिटिया’ तुम आई जीवन में
जुही पुष्प सी आंगन में
तत् तत् पप् पप् मम् मम् करती
मैं सारी भाषा समझ गई ।(‘बिटिया’)
प्रतिमा राकेश अपने वास्तविक कविताई की तरफ तब बढ़ती है ,जब वह बड़े कवियों और बड़ी कविताओं को भूल अपने व अपने समय को देखना चाहती है ,कभी प्रश्नों के सहारे ,कभी निर्मम स्वीकारोक्तियों के साथ । ’सफलता क्या है अच्छी डिवीजन/अच्छे प्रतिशत /अच्छी नौकरी/ और एक ‘ग्लोरियस डेथ’(शक्ति) यद्यपि यह बौद्धिकता निरंतर प्रवहमान नहीं है ,कभी कभी यह भावुकता के साथ घालमेल भी करती है
तुम शक्ति हो ,मैं स्नेह
इसलिए कि तुम पिता हो
और मैं
उसकी रग रग में बहने वाली मॉ ।
प्रतिमा राकेश प्रकृति और प्रेम को भी काव्यसत्य बनाती हैं ,परंतु रमती नहीं ।उनकी शक्ति है उनका सीधापन ।अभिधा की प्रचंड शक्ति के द्वारा ही वे हस्तक्षेप करती हैं ,वैसे उनकी लय छंद वाली कई कविताएं कई जगह गिरिजा कुमार माथुर के कविताओं की याद दिलाती है ।परंतु हिंदी कविता की परंपरा में उनकी वही कविता जगह बनाती है ,जहॉ वे दुनिया को स्त्री ,मॉ या एक उच्चाधिकारी की सहधर्मिनी के रूप में देखती है ।
प्रतिमा राकेश की कविताएं पुरूषप्रधान समाज की संरचना ,उसकी मनोवृत्तियों और शोषण की वृहत्तर स्वीकार्यता के विरूद्ध प्रश्न उठाती है ,तथा इस प्रश्नवाचकता में ही यह कविता की सीधी संरचना का परिहार करते हुए संश्लिष्ट बनती है ।पुरूषवादी समाज की यौनिकता पर व्यंग्य करते हुए कहती है
'रेड लाइट एरिया जैसा
मशीनी'सकर' चाहिए
जहॉ सुलभ शौचालय की भॉति
हल्का हो सके वह ।
और
बाहर निकल जाए,
साफ सुथरे कुर्ते पायजामें में,
तृप्त झकाझक सफेदी के साथ ।'
कविता की यह दिशा भले ही स्पष्ट हो ,परंतु वह इकहरी नहीं ।इसीलिए नारीवादी रूख के बावजूद वह नारीवादी आंदोलन की संरचना पर प्रहार करने से नहीं चूकती
'स्वतंत्र हो चुकी औरतें
वो बोटियॉ है
जिन्हें देखते ही
लील जाना चाहते हैं
विचारक/लिबरेशन के नाम पर '
'बोनसाई' नामक कविता में वह कहती हैं
'जमीन से जुड़ा
हवा के साथ झूमता
आकाश छूता बरगद
जानता है
बोनसाई ,पनपते क्यों नहीं ?
प्रतिमा राकेश के पास समाज और साहित्य के असली प्रश्न हैं ।इसीलिए उनको पता है कि ब्राह्मण ,ठाकुर और बनिया गाली नहीं होता ,परंतु 'चमार' होता है ,और 'वागर्थ प्रतिपत्तये 'की समझ ही उनको कामयाब बनाता है
'चमार कहीं के'
सिर्फ एक शब्द नहीं ।
गलगले नींबू जैसा
दर्द बिलबिला उठता है
और उठ जाती है गड़ासी
गर्दन के आर पार '
यहॉ प्रस्तुत है 'नि:शब्द' संग्रह की एक सौ पॉच कविताओं में से उन्नीस कविताएं ।
छ: इंच मॉस का लोथड़ा
मॉ .....
तुम्हारी बूढ़ी होती हड्डियों में
चेहरे की झुर्रियों में
हाथों की सलवटों में
ऑखों के मोतियों में
डूब जाना चाहती हूं ।
भर लेना चाहती हूं
अपने आगोश में
आखों के ऑसूओं को
चूम लेना चाहती हूं ।
किंतु मैं विवश हूं
नहीं है मेरे पास
छ: इंच लम्बा
मॉस का लोथड़ा
बेटा बना देता जो मुझे
और मैं वंश वृक्ष की /शाखों को
और बढ़ा पाती !
जानती हूं मैं
छ: इंच लम्बे
मांस के लोथड़े .....
बन जाते हैं बेटे
बढ़ाते हैं वह
वंश की बेल को
देख नहीं पाते लेकिन ...
फटते कलेजे को ....
पोर पोर बहते
आंखों के क्रन्दन को ।
मांगते हैं तुमसे जो
सीने पर चढ़कर
जमीन में हिस्सा
मकान का हिस्सा ।
जानते हैं वो कि...
एक अदद छ: इंची मांस ने
बना दिया है वारिस...
जमीन जायदाद का ।
बेटा पैदा होते ही
बन जाता है वारिस
और बड़ा होते ही करता प्रतीक्षा
बाप की मौत या हथियाने को
चुपचाप सारी जायदाद ।
मां ....
तुम्हारी गिरती हुई सेहत को
बढ़ते ब्लड प्रेशर को
चार सौ चालीस ब्लड शुगर को
थाम लेना चाहती हूं
चाहती हूं मैं ....
कि ,मेरे जीने तलक
जीते रहे मेरे मां बाप
नहीं चाहिए मुझे जायदाद
मांगती हूं दुआ सिर्फ ....
और सिर्फ सांसों की
लम्बी उम्र अपने मां बाप की।
हालांकि जानती हूं मैं
नहीं होगा ऐसा /क्योंकि
अकेला नहीं था औरंगजेब
’डी थ्रोन’ होते रहे हैं /
और भी जहांगीर /
आगे भी होते रहेंगे लेकिन
कैसे कहें व्यथा
अपनी औलाद की कथा ?
तड़पाए जाने की
त्रासद पिता की
वारिस जायदाद का /
पा लेना चाहता
शीघ्र से शीघ्र
मिल और मकान को ।
मर जाना चाहती है
इसीलिए मां बाप की मृत्यु से पहले
बेटों के आगे हाथ फैलाने से पहले
2 मम्मी
मां
तुम टी0 वी0 वाली मम्मी की तरह
’इलेगैन्टली’ क्यों नहीं रहती ?
बेटे का मासूम प्रश्न ।
क्यों नहीं तुम भी ‘वोर्नवीटा’ ‘हार्लिक्स’ पिलाती
खाना बनाते मिर्च मसाले दिखाती ?
सजी संवरी लकदक नहीं
ऐसी क्यों दिखती हो ?
बेटे का मासूम प्रश्न !
टी0वी0 वाली सास की तरह,
दादी क्यों नहीं हंसती
खुश खुश हों सास ससुर
चाचा भी ताउ भी
बेटे का मासूम प्रश्न !
मैले कपड़े ,बिखरे बर्तन
और तुम्हारी साड़ी भी
कितनी मैली कितने धब्बे ?
बेटे का मासूम प्रश्न !
इस घर में क्यों
हरदम चकचक ?
हरदम किल्लत ?
हरदम खिचखिच ?
बेटे का मासूम प्रश्न !
गोदी में आते ही तेरी
आती गंध पसीने की
साड़ी तेरी मुड़ी तुड़ी
कोई भी परफ्यूम नहीं ?
बेटे का मासूम प्रश्न !
’मम्मी ‘ बन जाओ न तुम भी
वह टी0वी0 वाली सी ‘मम्मी’ ।
3. वह बड़ा हो गया है
मरदों की भीड़ में,
शामिल हो गया है वह
जो -
नन्हीं बाहें फैलाए
तुतली बातें करते
मोह लेता था मन ।
देख रही हूं मैं ....
रोज ब रोज बढ़ता जा रहा है,
वह .....
मरदों की चालाकी सीखता
धूर्तता की खाल ओढ़ता
झूठ बोलता,
कपट भरी आंखों से,
रूपयों की ओर देखता ,
मेरे हाथ से,
छूटता जा रहा वह
रोज व रोज बढ्ता जा रहा वह ।
झुठ, छल, फरेब से चमकती,
उसकी ऑखें,
अब भी -
भुलाए रखना चाहती है,
मुझे...
उसी भोली दुनिया में
जिसे छोड्कर वह
बढ् गया है आगे
मरदों की आपा धापी में,
फिर भी
बनाए रखना चाहता है
अब भी
एक भ्रम ।
भ्रम यही
वह अब भी बच्चा है
उतना ही सच्चा है।
जबकि मै
रोज व रोज,
देख रही हूं,
वह,किसी धूर्त मदारी की तरह
झोक रहा है मेरी ऑख में धूल,
शायद वह बड़ा हो गया है ,
हॉ ! वह बड़ा हो गया है।
4 देवदास
उसकी ऑखों में
दर्द है
अब भी ,
अस्वीकृत कर दिए गए
प्रेमी का ...
ठुकराया हुआ दिल
देवदास का
उस किशोर को मर्द,
बनने से पहले ही
प्रैक्टिकल ,लड़की ने,
बता दिया प्यार ....
वादा ...
दोस्ती ...
निभाने नही उपर चढने के रास्ते है।
पांव रखो
उपर चढ़ो,
धकेलकर -
गिरा दो
गहरी खाई में दिल ।
भोली भाली दुनिया से
मर्द बनने तक
सोसाइटी के सोपान
चढ़ने तक
सुरक्षित कर लो अपनी जगह
इस पार
या उस पार
अब 'पारो' नहीं
बनती हैं लड़कियॉ
बनते हैं सिर्फ 'देवदास' ।
'देवदास' एक लड़की के लिए
मरने नहीं देगी तुम्हें,
तुम्हारी मॉ
जीना होगा तुम्हे/
मेरी खातिर ।
बाप,भाई ,बहनों की खातिर ।
एक खत्म हुआ रिश्ता
क्या मार जाता है
सारे रिश्तों को ?
नहीं मेरे 'देवदास' पुत्र
तुम्हें जीना होगा
इस भोली भाली दुनिया से
मर्द बनने तक
प्यार ...
वफा ...
दोस्ती ....
सारी सीढि़यॉ छलॉगते
मैं जानती हूं
जिंदा रहेगा वह
एक अविश्वास के साथ-
फिर भी चढ़ेगा ,
सफलता की सीढि़यॉ
अस्वीकृत कर दिया गया 'देवदास' ।
5 गान्धारी
मुझे दु:ख है, पलता रहा गन्दा खून
मेरी कोख में
सीचती रही अमृत
वह पिता रहा विष
मेरी अस्थियों से निकलती रही मज्जा
करती रही शरीर खोखला
मै गान्धारी, समझ नही पाई
नन्हा बच्चा खेलता रहा गोद में
पुलकाता रहा रोम रोम
नन्ही किलकारियों से
भरता रहा व्योम ।
मेरे दिल दिमाग में छा गये सपने
सपने मेरे आसमान हो गये ।
जिसे बनना था राम
मेरे मुल्यो की की धडकन
दुख है मुझे -
बंदरिया की तरह सीने से चिपकाये
घुमती रही मै
मेरा बैटा जिसे बनना था
श्रवण कुमार,कृष्ण या बलराम
सपनो का वह 'राज कुमार 'नही बना
वह ....
जिसकी आरती उतारती
माथे पर चंदन लगाती
बन गया आग समझ नही पाई मैं ,
कब बन गया आंतकवादी
और मैं गानधारी
दुख है मुझे जिस टुट कर पाला मैंने
मुझे सर से पाव तक तोडने लगा है वही।
6 जवान
बचपन की कैद से
मुक्त होने को
छटपटा रहा है वह
अंगो का तनाव से
कसमसा रहा है वह
वह !
वह,जो कल तक
मेरी गोद में सर रखे
लोरियॉ सुनता था
थाली के हर कौर को
लड्डू बना
ऑगन में गोल गोल
चक्कर लगा
दौर दौर खाता था । आज वह
एक ही छलांग में
बन जाना चाहता है जवान
वह -
जिसकी आखो में
तैरने लगे है सपने
परियो के नहीं सुन्दरीयों, के
चखना चाहता स्वाद
सुरा और सुंदरी का । वह। जो बदल रहा
या फिर शायद
बढ रहा तेजी से
कैसे आश्वस्त होउ में
कि सुरा हो या सुदरी
वह स्वाद लेकर ही
ठहर जायेगा
वह फिसलता ही
नही चला जायेगा
क्योंकि हर नशा
वह ढलान है।
जहॉ रुकना,ठहरना
सोचना और समझना । एक मुस्किल पडाव है।
वह नही जानता कभी.कभी
वह पडाव आता ही नहीं और अचानक
जवान हुआ बच्चा
बुढा होने तक
लुढकता चला जाता है।
वह,
बचपन की कैद से
मुक्त होने को
छटपटा रहा है। अंगो के तनाव से
कसमसा रहा है।
7 तलाश जारी है
भोर होते ही ,
ऑखो में कीच
दांतो में मैल
सांसों में दुर्गध बसाए
निकल पड़ते हैं
बच्चे,बूढ़े औरतें
और जवान छातियॉ।
उस ओर ढ़ेर सारे सुअर
थूथन घुसेड़तें
कुछ कुछ मिचियाते
फैलाते सड़ांध।
बच्चे बूढ़े, औरतें
और जवान छातियॉ
सुअर कुत्ते,
और मुर्गियो के ढ़ेर में
गढ्ढ मढ्ढ हो जाते हैं।
चारा खोजते हुए लोग
जुठे टुकडे।
लोहा लक्कड,लाल भुझक्कड़
जैसे ढूंढते रहते हैं
शीशे,जस्ते या फिर पन्नियॉ।
कचडे के ढेर में
कुछ पाने को
कूड़ा खंगालते
बच्चे, बूढे ओरते आजाद हैं
आजाद भारत की संतान है।
आजाद हैं कुछ भी करने के लिए
गोबर मे गेहूं
कूड़े में कॉच
,राजधानी, से फेंका....
बासी अनाज .....;
कुछ भी हो सकता है
कचडे़ के ढ़ेर में
मानवीय गरिमा की
तलाश जारी है।
मंदिर का निर्माण जारी है
अम्बेडकर पार्क बनना जारी है।
यज्ञ हवन कुम्भ स्नान
सबकुछ यथावत है
कलश यात्रा ईश्वर प्राणिधान
उच्चता का
पवित्रता का
हर स्वांग जारी है।
8 डायना डोबरमैन
'डायना'.....
डोमरमैन बच्चो की वफादार
मालकिन की फटकार
सुनती कुकुआती....
छुप जाती बिस्तर के निचे
बच्चो के कदमो में
बस्ती है दुनिया
टेबुल के नीचे
आलमारी के पीछे
छुप जाती कुकुआती ।
दुनिया है उसकी
छुपकर बैठना
एक टक देखना
बच्चो की ओर
जो खरीद लाए हैं
डॉग ब्रीडर की गंधुआती टप्पर से ।
दो गुणा तीन से
तीन गुणा चार की
टीन की टपरियो में ,
चार फुटे कुतों को
उन सबने रखा है
ब्रीडीगं का पेशा है।
यहां से वहां तक
पेशे से शौक तक
डायना का सफर
'नर्क' से 'स्वर्ग 'तक।
स्वर्ग क्या....
पुट्टे में घोपकर
7 इन वन
लगने न पाए अब
कोई इंफेक्शन।
सुंन्दर की टेक है
डॉकिंग का रेट है
काटकर छांट दी
चार इंच पूंछ बची
काटकर मातृत्व की
नाजुक नसें
रोक दिया जाता है
उसका प्रजजन।
पट्टा सीकड जाबा।
पानी भरा कटोरा
दूध सनी रोटी
पूंछ कटी छोटी
प्यार से डुलाने को
मक्खी उडाने को ।
पूंछ नही फिर भी वह खुश है।
तीन गुना चार की
कैद से आजाद है
र्स्वग हैं यही कहीं
बच्चो की गोद में ।
9 साहित्यकार
वह आता रहा
लगभग हर सप्ताह
सुनता रहा
मेरी कविताऍ,
मेरी आहें
देता रहा दाद, और
कभी वाह!वाह !
मैं
हर जख्म हर ख्वाब
पिरोती रही
कविता में कहानियों में ।
रुह में सुलगती रही आग।
आता रहा वह,
प्राय:
मेरा दर्द बांटने ।
पढ़ लेने को आतुर
डायरी के पन्ने ।
वह करता रहा ,
' एडिटिंग', और मै ?
मै और मैरी डायरी
जस की तस हैं ।
मैं
अब भी हूं वही ठहरी
और वह ?
दर्द से भींगे लम्हों का गवाह
बन चुका है
सफल कवि ।
'हाईली पेड' लेखक
छप चुके हैं उसके
तीन कविता – संग्रह
दो उपन्यास।
शब्दों के हेर फेर ने
लेखक बना दिया उसे
मेरे भोगे हुए लम्हो को
सदियों की कब्रगाह ,
दे गया वह ।
वह कवि बन गया
मेरी डायरी पढ़ते - पढते
रिसते हुए घावों को
सहलाती में
अपनी पीड़ा आप बॉटती
खडी हूं वहीं
जहॉ उसने मुझे छोड़ा था ।
फेरकर निगाहें चल दिया
दुसरी राह ।
उसने मुझे पाया था
साथी कहकर
सहलाते सहलाते
घावों को मेरे
बन गया जो सफल साहित्यकार ।
पुरुष
न लोमडी है न कुत्ता
वह मारता है झपट्टा
चील सा ले उड़ता है
आपका अस्तित्व ।
स्त्री ....
क्या तुम सिर्फ
घुल जाने के लिए हो
बार बार ,हर बार
पिघल जाने के लिए हो
10 मगरमच्छ 1
नदी गहरी है ....
मगरमच्छों की भरमार,
भले हो यूपी या बिहार ।
मबरमच्छ है बडे – बडे
उत्तरांचल ....
मध्य प्रदेश ......
छत्तीसगढ.
राजस्थान .....
पालती इनको हर सरकार ।
बात हजारों लाखों की
नहीं करोडों का है माल
इधर उधर करती है सरकार ।
पानी पीते हैं मुल्ला
खुदा भी नहीं जानता कब
इसी तर्ज पर विकास
यही करती सबकी सरकार ।
सरकारें जानती हैं
अफसर को पालती हैं
एफबीसीआई हो, चारा हो ,
स्टाम्प का घोटाला हो
पेट नही भरता
कभी सरकार का ।
चारा जो बोते हैं
काटते हैं और ,
पूरी की पूरी ग्रीन बेल्ट
शहर में बस्ती में
हो जाती तब्दील ।
नप जाता अफसर
हो जाता सस्पेंड,
शान से दौडती सरकार ।
बोरियां बोई जाती है
बोरियां लादी जाती है
टैम्पो और ट्रकों में लदकर
हो जाती सीमा पार /
मंत्री बनाम संत्री ,
आईएस बनाम पीसीएस
फाइलों पर फाइलें
पहुंचती जाती जज साहब के पास /
अयोध्या हो या हरिद्वार
नालंदा हो या नैनीताल
जज साहब की यात्रा
मुर्ग मुसल्लम सहित
पंहुच जाती पूरी सौगात /
संतरी का झब्बा
लंका हो नेपाल
न वीसा न पासपोर्ट /
मगरमच्छ की मोहर
झब्बरदार अर्दली , अपनी सरकार ,
मगरमच्छ के लम्बे हाथ ,
मछलियों की गर्दन पतली /
कहीं पकड़ा जाय घपला –
'मिश्राजी' ,सस्पेंड ,
तिवारी जेल -
लाला की इन्क्वारी /
ठाकुर की रीढ़ में पानी ,
मूछों पर देती ताव
यहॉ वहॉ जहॉ तहॉ
हर ओर सरकार ।
भ्रष्टो में भ्रष्ट की
होती खोज
गोलगप्पे की पोस्ट पर
बंधु का होल्ड
चीटीयों सी तन्मयता
मधुमक्खियों की धुन
चूसकर शहद उड जाती सरकार /
पत्थर मारकर देखो
घेर लेंगी चारो ओर
शहद की मक्खियॉ।
या हो मगरमच्छ से बैर
बनते हो इम्मानदार
ट्रांसफर.....ट्रासफर......ट्रांसफर.........
सरकार दर सरकार /
11 मगरमच्छ-2
चीफ साहब का आगमन है
तैयारी में व्यस्त है कलक्टर
एस0डी0एम0 साब की आवाज
तहसीलदार का पसीना
लेखपाल की गर्दन
ग्राम प्रधान की पॉकेट
विकास का धन .... ,
साब, साहिबा
साहिबा, मेमसाब ........
असली है नकली हैं कोई नही जानता /
खाने पीने ठहरने घूमने
बाजार से घर
घर से होटल
कोई बजट नहीं सेवा सत्कार का
फिर भी सरकार का ,'चीफ',
स्वागत में कमी न हो
वरना........
मधुमक्खयों के छत्ते में
फेंकना पत्थर
छिदो और तड़पो ।
मगरमच्छ ..
सरकारों ने पाले हैं
बडे और भयानक शिकारी
कर सकते हो तो करो
जल में रहकर मगर से बैर ।
मगरमच्छ का
कुछ नहीं बिगड़ता
शान से तैरता रहता वह ।
पागल मत बनो,
राह मत अड़ो
लड़ो- अपने आपसे लड़ो
व्यवस्था का हिस्सा बनो।
छोड़ दो अपने वसूल
तोड़ो धर्म
भूलो ईमान
लड़ो अपने आपसे ......
मगरमच्छ से नही ।
वरना पछताओगे
उनका अभिमान
तुम्हारा स्वभिमान
मगरमच्छ और मछली
दोस्ती नही दुश्मनी भी नहीं
एक ईमानदार दूरी /
अच्छी है.......
वरना ......
मगरमच्छ का कुछ नहीं बिगड़ता
वह शान से तैरता है
विदेश चला जाता है
और तुम ?
रेत से निकली मछली की तरह
तड़पते तड़पते ....
कर लेते समझौता
ईमान का कोई पैमाना .
नहीं होता
अपना – अपना पैमाना खुद तैयार करना
वरना ....
यूं ही तडपते तडपते
एक दिन रिटायार हो जाओगे/
12 पैमाना
ईमान ..........
तुम्हारा कोई पैमाना नही होता
जैसे हर आदमी सुतवॉ नाक
लम्बे कान और .....
बड़ी- बड़ी आखों वाला
गौतम नही होता ।
कोई रुपए की हवस में
बेचता है ईमान
कोई शरीर की हवस में
स्वाहा करता है ईमान ।
कहीं जमीन , कही जायजाद,
डोल जाता ईमान ।
कहीं किसी कंदरा में
कहीं किसी होटल में
कही किसी पार्टी में
मानव मन
तुम्हारा कोई पैमाना नहीं होता ।
प्यार .........ईमान ..........विश्वास....
कुछ भी ठहरा हुआ नहीं होता ।
13 घमासान जारी है।
एक एक पग
बढ़ते हुए,
लीलता रहा वह
और मैं ,
एक – एक रात
खोती रही नींद
फिसलन भरे रास्ते
नदी का बहाव
मगर से बैर ।
कुछ भी नही संभला
कब तक करती प्रतिरोध ?
डी0 एम0 साहब /
कमिश्नर साहब /एस0डी0एम0 साहब /
एस0पी0,डी0आई0जी0,साब,
या फिर अर्दली साब
एक श्रृखला
डेली वेजर से
चीफ मिनिस्टर तक
एक सीढ़ी।
जितना बड़ा साहब
उतना विशाल उत्कोच्छ !
जितनी बडी पार्टी
उतने हीरे, उतनी साडियॉ
उतने पन्ने,उतनी सैंडील
उतने जूते ,उतने कुत्ते
कुत्ते जैसे आदमी
आदमी जैसे कुत्ते
आदमियों की बची
कुत्ते जैसी जीभ
जैसी जीभ ,
वैसी एंट्री/जीभ लपलपाओ ,
'आउट स्टेंडिगं ', पाओ।
अटैची उठाओ,माल पकड़ाओ
माल कमाओ,माल उड़ाओ
और हॉ,नही सीख सकते
यह सब तो / ,'आउट' हो जाओ।
सोचती रहती हूं मैं सारी सारी रात
खोती रहती हूं अपनी नींद ।
नींद - वापस लाने के लिए छोड़ना होगा
शीशे का घरोंदा
आना होगा-
सडक पर ,ओस में ,
शीत में ,पार्क में,
सुख भरी
नींद पाने के लिए।
पार्क की बेंच पर -
होगी सुबह ।
औरत को सरेआम
गांव में ,ट्रेन में
नोंच लेते हैं सब
कोई कुछ नही बोलता ।
सोचती रहती हूं मैं सारी-सारी रात
खोती रहती हूं मैं अपनी नींद
रात की थकान, तारी है
अभी घमासान जारी है।
14 तुम्हारी पंसद
तुम्हे पसंद नही हैं-
कोई तुम्हारी 'चीज' को छुए,
किसी के पहने हुए कपडें ।
किसी की उतरी हुई चप्पल /
कोई तौलिया,कोई बिस्तर /
किसी दुसरे द्वारा प्रयुक्त हो।
तुम्हें पसंद नही हैं।
होटलों में जाते ही –
5 स्टार कल्वर,
तुम्हारे पूरे वजूद को
मोम कर देता है,
और
तुम धुली चादर ,
धुली तौलिया
धुली-धुली क्रॉकरी ,
करीने से लगी कटलरी ,
वही –वही गिलासें,
जिसमें जाने कितने लोगों ने
कभी जाम कभी पानी ,
कभी चाय,कभी शरबत ,
पिया था -
होंठों से लगा लेते हो चुप चाप।
तुम, जिसे बिल्कुल पंसद नहीं है
कोई तुम्हारी ,चीज,को छुए,
तुम किसी की जूठन,
किसी की उतरन
किसी की सौगात पंसद नही आती -
नई – नई औरतो के साथ
बिताते हो रात,
उस समय तुम्हें भी अपनी
सनक लगती है वाहियात ।
मै .......
तुम्हारी पत्नी
किसी की ओर
भरपूर नजरो से देखूं
नजरे जूठीं हो जाती है/
कोई मुझसे हाथ मिलाए
हाथ मैले हो जाते हैं।
किसी से अगर हो जाए प्यार
चरित्र मैला हो जाता है-
हो जाती हूं मै अपवित्र ।
किसी के साथ सपने में भी
मैं बिताउं रात ..........
तो वैश्या हो जाती हूं ।
तुम - कितने हो साफ शफ्फाक ।
हर दिन नया जाम ,
हर दिन नई माशूका -
बदलते हो बार –बार ।
फिर भी तुम्हारा अंग मैला नही होता है।
क्योंकि तुम पति हो
और पति ......
परमेश्वर होता है
वह कभी मैला नही होता है।
उसका चरित्र
दो ,चार या दस बीस
औरतों के साथ सोने से घिसता नही है,
क्योंकि वह पति है और पति परमेश्वर है,
सदा पवित्र है।
15 रेशमी कैद
तुमने
मुझे छुआ भी नहीं
ओर मैं
छुई मुई की तरह
लुंज पुंज हो गई ।
तुमने हाथ लहराया
हवा में
और में
लहूलुहान हो गई ।
तुमने प्रणय निवेदन किए
और मैं
सर से पाव तक
प्यार ही प्यार हो गई।
मैं कुछ भी नही जानती
ऐसी क्यों हूं ?
तुम्हारे आगे-पीछे
रेशम के कीड़े की तरह
घर की चाभियॉ लटकाये
जिम्मेदारिया , जनते,
मैं खुद ही इस रेशमी गिरफ्त की शिकार हो गई।
तुम उबालते हो मुझे
मैं और नर्म होती हूं
रेशम के कीडे़ सी
कुछ भी नही जानती मैं ऐसी क्यों हूं ?
क्यो नहीं हूं मै उन रेशमी कीड़ों की तरह
जो अपने ही इर्द-गिर्द
रेशम तो बुनते हैं
काटकर उसे आजाद हो जाते हैं।
काट नही पाती मैं
गृहस्थी के जाल को
सांस नहीं लेती क्यों
खुले आसमान में ।
ओ रेशम के कीड़े
क्या कम हैं
चंद ही सही तुम
कुछ सांसें तो लेते हो
अपनी कैद भी बुनते हो
आजादी भी लेते हो ।
मैंनें अपनी ....
कैद गढी है खुद ही ,
छीन नहीं पाती आजादी
रेशमी गिरफत में घुता है दम क्यों
मै कुछ भी नही जानती ।
16 पच्चीस बरस
'फायर बाल '
कभी यह था मेरा उपनाम
और मैं..
धधकती आग की तरह
कभी440 बोल्ट की तरह
(यह भी उप नाम था)
तोडती रही रोटीयॉ पच्चीस बरस ।
हमारी मांद में तुम शिकार लाते रहे
मै पालती रही शावक ।
सोचती थी मैं कभी तो मुक्त होगी
मांद से........
बाहर हरे - भरे पेड़
बर्फ की बौछार में
सिहरते हुए करते रहे प्रतीक्षा मेरे आने की /
बाहे फैलाए खडा रहा देवदार ।
आएगी प्रियतमा रोपती हुई धूप।
सींचती रही जो,बचपन में जड़ें मेरी ।
मेरे बच्चे .........
ढूंढने लगे थे शिकार
और मैं
भूल चुकी थी शिकार करना ।
कुदं हो चली दॉतों की धार
भोथरे हो गये नाखून
'फायरबॉल' ....
राख में तब्दील हो गई
रह गई झुर्रियॉ -
बची हुई राख की तरह
पच्चीस बरस कम नहीं होते
आग को राख में बदले के लिए।
17 तलाश
उन्हें तलाश है
एक-,लवेबल, चेहरे की ।
औरत- जो बिस्तर में,
एक अदद गहरा कुऑ और दो पहाड़ हो।
आखों से हिरन हो,
बोली से कोयल ।
वह चाहें,तो प्यार करें
चाहें अपमान करें /
शिकवा न करें औरत ।
औरत ,जो जिन्दा तो हो
मगर लाश की तरह ।
प्यार,जलन,गुस्सा
कोई एहसास न हो
मान हो,अपमान हो
वह तो योगस्थ हो।
उन्हें तलाश है,
एक- ,लवेबल,चेहरे की ।
एक ,'ओबीडिएंट' मातहत की
जो बिना बोले
चुपचाप करता रहे हर काम
सीना भी ,पिरोना भी
खाना भी,पकाना भी,
धोना भी,धुलाना भी,
और हर रात बिस्तर पर ,
मनाए चुपचाप सुहागरात।
18 सत्ताईस बरस
27 बरस तक
वह फेंकता रहा रोटियॉ
मै बटोरती रही .......
वह बरसाता रहा नोट
मैं गिनती रही
फिर भी.....
तवायफ नही हूं मैं
मेरी मांग में है सिन्दूंर।
आज अचानक
27 बरस की साधना पाप बन गई
दिए गए पैसों का हिसाब बन गई ।
आज अचानक –
सिदूंर की तुलना में
साफ शफ्फाक नजर आई
वह तवायफ ।
शरीर दिया धन लिया
हिसाब बराबर ।
कोई किसी से किसी का,
हिसाब नही मांगता ।
तवायफ पत्नी नही है,
न मैनेजर घर की ,
इसीलिए देना है उसे
दिए गए पैसो का हिसाब ।
तवायफ पत्नी नहीं है,
फिर भी निठल्ली नहीं है-
अपनी नजर में,
अपनी ही मालकिन है।
मांग का सिंदूर
आत्मा की सीकड नहीं।
तवायफ पत्नी नहीं /
जब चाहे तोडकर जंजीर
दो हाथों से भर सकती है एक पेट ।
वह तवायफ है
इसीलिए मर सकती है आत्मा सम्मान की मौत-
और वह मरती है मान सम्मान से
क्योंकि वह किसी की गुलाम नहीं।
19 आकर्षण
मेरे शरीर का आकर्षण
तुम्हे खीचता है अपनी ओर ।
मैं,बिंधी चली आती हूं
लिपट-लिपट जाती हूं
कोमल लता सी गठे हुए गात से।
तुम्हारा आकर्षण
खींच ले जाता है,
चुंबक की तरह
मैं खिंची चली आती हूं
घन-घन बरसात में।
यौवन की वासना है,
प्यार है, समर्पण है,
कुछ भी न जानती
मैं क्यों चली आती हूं
चिचिल चिचिल धूप में।
जानती हूं मैं
शातिर प्रेमी
कुछ भी नहीं छोडता
न स्वप्न न सम्मान
न प्यार न विश्वास
सिर्फ बहा ले जाता है
बाढ़ में साथ में
उखड़ जाते जड़
बडे़-बड़े पेड़ ज्यों
बाढ़ के विनाश में
बहे चले जाते
जल जाते
हरे भरे पेड़
जंगल की आग में।
शातिर प्रेमी
शरीर का मन का
कुछ भी न छोडता
स्वप्न न सम्मान
न प्यार न विश्वास
फिर भी मैं विवश हूं
प्यार के बहाव में।
(साभार अरू पब्लिकेशन्स प्रा0 लि0)
सरस्ती हाउस समूह
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बहुत सुन्दर और गहन समीक्षा की है।
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