'आलोचना' का यह अंक श्री पुरूषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक 'अकथ कहानी प्रेम की ' के बहाने पुन: कबीर के घर में पैठने का प्रयत्न है ।हालांकि शीश काटकर भूमि पर रखके अन्दर घर में जाने का साहस कोई बिरला ही कर पाता है ।
इस पुस्तक ने कबीर को ,कवि कबीर को ,और उनके समय-समाज को फिर से और नए सिरे से गुनने समझने के लिए प्रेरित किया है ।वास्तव में हम जिस कबीर को जानते हैं वह संत महात्मा या पंथ-मठ-सम्प्रदाय वाले कबीर नहीं बल्कि कवि कबीर ही हैं ।भारतीय जीवन में अनेक संत-महात्मा हुए होंगे ,जैसे अनेक दार्शनिक और ऋषि भी ,लेकिन लोक और साहित्य-समाज ने उन्हीं को कंठस्थ किया जो मुख्यत: कवि हैं ,कबीर-सूर-तुलसी-मीरां या ललदद,बसवण्णा,तुकाराम और शाह लतीफ ।यह घटना दर्शन और काव्य के आन्तरिक सम्बन्ध को भी प्रकाशित करती है ।
रवीन्द्रनाथ भी कवि और कबीर को ही जानते थे ,रहस्यवाद आनुषंगिक था और काव्य में ही अनुस्यूत ।हरिऔध भी उसी काव्य से आकृष्ट हुए ।प्रेमचन्द की कहानी 'कफन' ,'ठगिनी क्यों नैना झमकावै' के बगैर अपूर्ण होती ।नागार्जुन ने कबीर के जन्मदिन ज्येष्ठ पूर्णिमा को अपना जन्मदिन माना । त्रिलोचन ,मुक्तिबोध ,भीष्म साहनी ,रघुवंश सबने कवि कबीर पर लिखा ।तीन दशक पहले भृगुनन्दन त्रिपाठी ने जो कविता पत्रिका निकाली असका नाम रखा 'कबीर' ।और ,कबीर की छह सौवीं जयन्ती पर सन् 2000 में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान ,शिमला में कबीर की कविता पर केंद्रित एक संगोष्ठी हुई जिसमें गोपेश्वर सिंह और मैंने भी लेख पढ़े जो 'कबीर के मस्तक पर मोरपंख 'शीष्र्ज्ञक से और फिर 'कवि कबीर' शीर्षक से उसी वर्ष ''सम्भव' (सं0 सुभाष शर्मा) और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ ।उसी समय नामवर सिंह का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लेख कबीर की कविता पर 'हंस' में प्रकाशित हुआ था ।लघु पत्रिकाओं ने ,विशेषकर प्रगतिशील धारा की पत्रिकाओं ने ,कबीर पर लगातार सामग्री दी जिसमें आज से पच्चीस-तीस साल पहले 'वसुधा' द्वारा जारी एक पुस्तिका अभी भी याद है 'कबीर और तत्कालीन कृषक समाज' ।यह सब कहने -दुहराने की जरूरत इसलिए है कि हम भूलें नहीं कि लोक जीवन तथा कंठ परम्परा के साथ-साथ हिन्दी साहित्य समाज में कबीर की कविता पर लगातार बात होती रही है और यह पुस्तक उसी चर्चा-परम्परा को समृद्ध करती है ।
साथ ही साथ यह पुस्तक अनेक दूसरे सवालों ,पक्षों पर भी बात करती है । 'औपनिवेशिक आधुनिकता' बनाम 'देशज आधुनिकता' ऐसा ही एक महत्वपूर्ण सवाल है ।हालांकि 'औपनिवेशिक आधुनिकता' स्वयं में विरोधाभासी पद है - ऐसी कोई आधुनिकता सम्भव ही नहीं जो उपनिवेश की समर्थक या उससे संयुक्त हो ।यदि ऐसा होता है तो उसे आधुनिकता का विपर्यय ही कहा जाएगा ।गांधी जी ने 'हिन्द स्वराज' में यूरोप की आधुनिकता के इसी विपर्यय पर चोट की थी ।इसी सन्दर्भ में नेहरू जी ने भी पूछा था : कौन -सा इंग्लैंड भारत आया -व्यापारियों का या शेक्सपीयर-मिल्टन का ? बाकी तो हर समाज की अपनी आधुनिकता होगी या हो सकती है (स्वयं जर्मनी ,इटली ,इंग्लैंड या अमेरिका की आधुनिकता एक ही तो नहीं कही जा सकती )जिसमें कुछ तत्व जैसे स्वतंत्रता ,समानता और बन्धुता सर्वनिष्ठ भी होंगे ।
'धर्मेतर अध्यात्म' भी इसी तरह का पद है ।पुरूषोत्तम अग्रवाल ने इस सन्दर्भ में मार्क्स की अति चर्चित (लगभग विस्मृत नहीं ) 'आर्थिक एवं दार्शनिक पांडुलिपियां 1844 'में व्यवहृत स्पिरिचुअलिज्म पद का भी उल्लेख किया है जो वास्तव में चेतना या आत्म-तत्व को इंगित करता है ,एक नास्तिक की आत्मिकता को (क्योंकि मार्क्स के आरम्भिक लेख ही नास्तिकता के पक्ष में थे )किसी धर्मगंधी अध्यात्म को नहीं
।क्या धर्महीन या धर्मेतर आध्यात्मिकता सम्भव है ?(कबीर नास्तिक नहीं थे ) आध्यात्मिकता बिना किसी इतर की उपस्थिति की कल्पना के सम्भव नहीं ।एक ऐसा इतर जो हमसे भिन्न ,सुदूर और बृहत्तर हो ।व्यक्ति की आत्मा के सर्वोच्च (ब्रह्म की ) आत्मा से संयोग अथवा संयोग की आकांक्षा को व्यक्त करने के लिए प्राय: इस पद का प्रयोग होता आया है ।इसलिए इस पद के साथ धर्म का एक पूरा इतिहास सटा हुआ है ।रिल्के ,जो 'आध्यात्मिक' भी कहे जाते हैं ,का सबसे प्रिय उपन्यास था -डेनिश लेखक याकोब्सन का छोटा-सा उपन्यास 'नील्स लाइम' ।लेकिन 'नील्स लाइम' एक नास्तिक की कृति है -मनुष्य के इस ब्रह्मांड में निष्कवच संघर्ष की गाथा ,'न तो मनुष्य का कोई घर इस पृथ्वी पर है ,न कोई आसरा कहीं और ' ,'हर आत्मा अकेली है ......कोई किसी से कभी न पूरा मिल पाती है न पूरा विलीन .......' ।क्या इस भाव को 'धर्मेतर अध्यात्म' कहा जाना चाहिए ? नए भाव-रसों को पुराने पद उसी तरह बदल देते हैं जैसे कांसे का बर्तन ताजा दही को ।
श्री पुरूषोत्तम अग्रवाल की इस पुस्तक पर देश और विदेश के अनेक महत्वपूर्ण विद्वानों के निबन्ध एवं टिप्पणियां यहां एकत्र हैं जो पुस्तक के महत्व की सूचक तो हैं ही ,कबीर की निरन्तर उपस्थिति का भी प्रमाण है ।यह अंक वास्तव में एक परिसंवाद है जो आगे भी और अंक के बाहर भी जारी रहेगा ।
मुझ सरीखे मूरतों के लिए कबीर साहेब पहले ही फरमा गए हैं -
अकथ कहानी प्रेम की ,कछू कही ना जाय ।
गूंगे के री सर्करा ,खाए अउ मुसकाय ।
-अरूण कमल
(साभार 'आलोचना'त्रैमासिक सहस्राब्दी अंक छियालिस)
रवीन्द्रनाथ कवि
इस पुस्तक ने कबीर को ,कवि कबीर को ,और उनके समय-समाज को फिर से और नए सिरे से गुनने समझने के लिए प्रेरित किया है ।वास्तव में हम जिस कबीर को जानते हैं वह संत महात्मा या पंथ-मठ-सम्प्रदाय वाले कबीर नहीं बल्कि कवि कबीर ही हैं ।भारतीय जीवन में अनेक संत-महात्मा हुए होंगे ,जैसे अनेक दार्शनिक और ऋषि भी ,लेकिन लोक और साहित्य-समाज ने उन्हीं को कंठस्थ किया जो मुख्यत: कवि हैं ,कबीर-सूर-तुलसी-मीरां या ललदद,बसवण्णा,तुकाराम और शाह लतीफ ।यह घटना दर्शन और काव्य के आन्तरिक सम्बन्ध को भी प्रकाशित करती है ।
रवीन्द्रनाथ भी कवि और कबीर को ही जानते थे ,रहस्यवाद आनुषंगिक था और काव्य में ही अनुस्यूत ।हरिऔध भी उसी काव्य से आकृष्ट हुए ।प्रेमचन्द की कहानी 'कफन' ,'ठगिनी क्यों नैना झमकावै' के बगैर अपूर्ण होती ।नागार्जुन ने कबीर के जन्मदिन ज्येष्ठ पूर्णिमा को अपना जन्मदिन माना । त्रिलोचन ,मुक्तिबोध ,भीष्म साहनी ,रघुवंश सबने कवि कबीर पर लिखा ।तीन दशक पहले भृगुनन्दन त्रिपाठी ने जो कविता पत्रिका निकाली असका नाम रखा 'कबीर' ।और ,कबीर की छह सौवीं जयन्ती पर सन् 2000 में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान ,शिमला में कबीर की कविता पर केंद्रित एक संगोष्ठी हुई जिसमें गोपेश्वर सिंह और मैंने भी लेख पढ़े जो 'कबीर के मस्तक पर मोरपंख 'शीष्र्ज्ञक से और फिर 'कवि कबीर' शीर्षक से उसी वर्ष ''सम्भव' (सं0 सुभाष शर्मा) और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ ।उसी समय नामवर सिंह का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लेख कबीर की कविता पर 'हंस' में प्रकाशित हुआ था ।लघु पत्रिकाओं ने ,विशेषकर प्रगतिशील धारा की पत्रिकाओं ने ,कबीर पर लगातार सामग्री दी जिसमें आज से पच्चीस-तीस साल पहले 'वसुधा' द्वारा जारी एक पुस्तिका अभी भी याद है 'कबीर और तत्कालीन कृषक समाज' ।यह सब कहने -दुहराने की जरूरत इसलिए है कि हम भूलें नहीं कि लोक जीवन तथा कंठ परम्परा के साथ-साथ हिन्दी साहित्य समाज में कबीर की कविता पर लगातार बात होती रही है और यह पुस्तक उसी चर्चा-परम्परा को समृद्ध करती है ।
साथ ही साथ यह पुस्तक अनेक दूसरे सवालों ,पक्षों पर भी बात करती है । 'औपनिवेशिक आधुनिकता' बनाम 'देशज आधुनिकता' ऐसा ही एक महत्वपूर्ण सवाल है ।हालांकि 'औपनिवेशिक आधुनिकता' स्वयं में विरोधाभासी पद है - ऐसी कोई आधुनिकता सम्भव ही नहीं जो उपनिवेश की समर्थक या उससे संयुक्त हो ।यदि ऐसा होता है तो उसे आधुनिकता का विपर्यय ही कहा जाएगा ।गांधी जी ने 'हिन्द स्वराज' में यूरोप की आधुनिकता के इसी विपर्यय पर चोट की थी ।इसी सन्दर्भ में नेहरू जी ने भी पूछा था : कौन -सा इंग्लैंड भारत आया -व्यापारियों का या शेक्सपीयर-मिल्टन का ? बाकी तो हर समाज की अपनी आधुनिकता होगी या हो सकती है (स्वयं जर्मनी ,इटली ,इंग्लैंड या अमेरिका की आधुनिकता एक ही तो नहीं कही जा सकती )जिसमें कुछ तत्व जैसे स्वतंत्रता ,समानता और बन्धुता सर्वनिष्ठ भी होंगे ।
'धर्मेतर अध्यात्म' भी इसी तरह का पद है ।पुरूषोत्तम अग्रवाल ने इस सन्दर्भ में मार्क्स की अति चर्चित (लगभग विस्मृत नहीं ) 'आर्थिक एवं दार्शनिक पांडुलिपियां 1844 'में व्यवहृत स्पिरिचुअलिज्म पद का भी उल्लेख किया है जो वास्तव में चेतना या आत्म-तत्व को इंगित करता है ,एक नास्तिक की आत्मिकता को (क्योंकि मार्क्स के आरम्भिक लेख ही नास्तिकता के पक्ष में थे )किसी धर्मगंधी अध्यात्म को नहीं
।क्या धर्महीन या धर्मेतर आध्यात्मिकता सम्भव है ?(कबीर नास्तिक नहीं थे ) आध्यात्मिकता बिना किसी इतर की उपस्थिति की कल्पना के सम्भव नहीं ।एक ऐसा इतर जो हमसे भिन्न ,सुदूर और बृहत्तर हो ।व्यक्ति की आत्मा के सर्वोच्च (ब्रह्म की ) आत्मा से संयोग अथवा संयोग की आकांक्षा को व्यक्त करने के लिए प्राय: इस पद का प्रयोग होता आया है ।इसलिए इस पद के साथ धर्म का एक पूरा इतिहास सटा हुआ है ।रिल्के ,जो 'आध्यात्मिक' भी कहे जाते हैं ,का सबसे प्रिय उपन्यास था -डेनिश लेखक याकोब्सन का छोटा-सा उपन्यास 'नील्स लाइम' ।लेकिन 'नील्स लाइम' एक नास्तिक की कृति है -मनुष्य के इस ब्रह्मांड में निष्कवच संघर्ष की गाथा ,'न तो मनुष्य का कोई घर इस पृथ्वी पर है ,न कोई आसरा कहीं और ' ,'हर आत्मा अकेली है ......कोई किसी से कभी न पूरा मिल पाती है न पूरा विलीन .......' ।क्या इस भाव को 'धर्मेतर अध्यात्म' कहा जाना चाहिए ? नए भाव-रसों को पुराने पद उसी तरह बदल देते हैं जैसे कांसे का बर्तन ताजा दही को ।
श्री पुरूषोत्तम अग्रवाल की इस पुस्तक पर देश और विदेश के अनेक महत्वपूर्ण विद्वानों के निबन्ध एवं टिप्पणियां यहां एकत्र हैं जो पुस्तक के महत्व की सूचक तो हैं ही ,कबीर की निरन्तर उपस्थिति का भी प्रमाण है ।यह अंक वास्तव में एक परिसंवाद है जो आगे भी और अंक के बाहर भी जारी रहेगा ।
मुझ सरीखे मूरतों के लिए कबीर साहेब पहले ही फरमा गए हैं -
अकथ कहानी प्रेम की ,कछू कही ना जाय ।
गूंगे के री सर्करा ,खाए अउ मुसकाय ।
-अरूण कमल
(साभार 'आलोचना'त्रैमासिक सहस्राब्दी अंक छियालिस)
रवीन्द्रनाथ कवि
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