कबीर की अकथ कहानी पर :डेविड लॉरेंजन के आलेख का एक अंश::::-------
अपनी अकथ कहानी में अग्रवाल शास्त्रोक्त भक्ति और काव्योक्त भक्ति का जो नया वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं ,वह सामाजिक और धार्मिक प्रतिमानों को कलात्मक कसौटी के साथ जोड़ने का प्रयास प्रतीत होता है ।दूसरे शब्दों में ,अग्रवाल कवियों की धार्मिक और सामाजिक विचारधारात्मक भिन्नताओं के साथ ही काव्यात्मक भिन्नताओं पर भी बल देना चाहते हैं ।लेकिन यह बात हर जगह साफ नहीं हो पाती कि अग्रवाल तुलसीदास और सूरदास को किस वर्ग में रखना चाहते हैं ।एक स्थान पर वे केवल कबीर और निर्गुणी कवियों को ही नहीं ,बल्कि बस ,आदिकालीन और केशव जैसे रीतिकालीन कवियों को ही बाहर रखते हुए नामदेव ,मीरां ,तुलसीदास और सूरदास को भी काव्योक्त-भक्ति के अंतर्गत रखते प्रतीत होते हैं (पृ0 343) ।लेकिन कुछ ही पृष्ठों के बाद ,लगता है कि अग्रवाल तुलसीदास और सूरदास को काव्योक्त-भक्ति से बाहर मानते हैं (पृ 350) ।यह रेखांकित करते हुए कि कबीर अपनी भक्ति को स्पष्ट शब्दों में भगति नारदी कहते हैं ,पुरूषोत्तम अग्रवाल काव्योक्त-शास्त्रोक्त वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त धार्मिक विशिष्टताओं को क्रमश: नारद-भक्ति-सूत्र और शांडिल्य-भक्ति-सूत्र की वैचारिक विशिष्टताओं से विश्वसनीय रूप से जोड़ते हैं ।उनके द्वारा काव्योक्त कही गई भक्ति ,प्रेम प्रेरित ,उपलब्ध दार्शनिक संप्रदायों से स्वायत्त ,भागीदारी पर आधारित संवेदना है ,जबकि शास्त्रोक्त-भक्ति से अग्रवाल का आशय पारंपरिक संस्कृत शास्त्रों पर निर्भर और पारंपरिक धार्मिक सत्ता के समक्ष समर्पण की संवेदना से है ।
इन तीन वर्गीकरणों : सगुण-निर्गुण ,वर्ण-धर्मी और अवर्णधर्मी और शास्त्रोक्त-भक्ति और काव्योक्त-भक्ति के बीच की भ्रांतियों और उलट-पुलट से बचने का एक सीधा -सा तरीका यह स्वीकार कर लेना हो सकता है कि उत्तर भारत के भक्त कवियों की रचनाओं में धार्मिक,सामाजिक विचारधारात्मक और कलात्मक अंतर सदा साथ-साथ ही उपस्थित हों ,यह जरूरी नहीं ।दूसरे शब्दों में ,संभवत: यह बेहतर होगा कि इनमें सभी कवियों को समानांतर श्रेणियों में रखने पर जोर न दिया जाए ।इस पद्धति से,कबीरकी कविता को निर्गुणी ,अवर्ण-धर्मी और काव्योक्त वर्ग में रखा जा सकता है ।इसी तरह, तुलसीदास के काव्य को ,या कम से कम कुछ भजनों को ,सगुणी ,अवर्ण-धर्मी और काव्योक्त वर्ग में रखा जा सकता है ।
जिसे पुरूषोत्तम अग्रवाल भारत की आरंभिक आधुनिकता का दौर कहते हैं ,उस दौर में ,यानी मोटे तौर पर सन् 1400 से 1650 ई0 के बीच ,उत्तर भारत में विकसित हुई भक्ति-संवेदना की आंतरिक भिन्नताओं की रोचक तुलना यूरोपीय इतिहास के 1650 से 1790 के बीच के दौर अर्थात् तथाकथित यूरोपीय नवजागरण के दौर की एक विशेषता से की जा सकती है ।कुछ ही दिन पहले ,जोनाथन इस्राइल ने एक बहुत मजबूत तर्क प्रस्तुत किया है कि यूरोप में स्पष्ट रूप से दो नवजागरण हुए थे :स्पिनोजा ,डेनिस दिदरो ,डि हालबाक और थॉमस पेन जैसे बौद्धिकों के साथ जुड़ा रेडिकल नवजागरण ,और जॉन लाक ,वाल्त्ेयर ,इमैनुअल कांट और एडमंड बर्क जैसे बौद्धिकों के साथ जुड़ा कंजरवेटिव नवजागरण ।अधिक रेडिकल दिदरो और हालबाक के साथ वाल्तेयर की तुलना करते हुए ,इनके बीच वैषम्य का रेखांकन करने के लिए इस्राइल लिन शब्दों का प्रयोग करते हैं ,उनका उपयोग तुलसीदास और कबीर की तुलना करने के लिए भी ,बिना किसी ज्यादा फेरबदल के लिए किया जा सकता है
(आलोचना त्रैमासिक 46 वें अंक से साभार : मूल अंग्रेजी आलेख का अंग्रेजी से अनुवाद सुधांशुभूषण नाथ तिवारी)
अपनी अकथ कहानी में अग्रवाल शास्त्रोक्त भक्ति और काव्योक्त भक्ति का जो नया वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं ,वह सामाजिक और धार्मिक प्रतिमानों को कलात्मक कसौटी के साथ जोड़ने का प्रयास प्रतीत होता है ।दूसरे शब्दों में ,अग्रवाल कवियों की धार्मिक और सामाजिक विचारधारात्मक भिन्नताओं के साथ ही काव्यात्मक भिन्नताओं पर भी बल देना चाहते हैं ।लेकिन यह बात हर जगह साफ नहीं हो पाती कि अग्रवाल तुलसीदास और सूरदास को किस वर्ग में रखना चाहते हैं ।एक स्थान पर वे केवल कबीर और निर्गुणी कवियों को ही नहीं ,बल्कि बस ,आदिकालीन और केशव जैसे रीतिकालीन कवियों को ही बाहर रखते हुए नामदेव ,मीरां ,तुलसीदास और सूरदास को भी काव्योक्त-भक्ति के अंतर्गत रखते प्रतीत होते हैं (पृ0 343) ।लेकिन कुछ ही पृष्ठों के बाद ,लगता है कि अग्रवाल तुलसीदास और सूरदास को काव्योक्त-भक्ति से बाहर मानते हैं (पृ 350) ।यह रेखांकित करते हुए कि कबीर अपनी भक्ति को स्पष्ट शब्दों में भगति नारदी कहते हैं ,पुरूषोत्तम अग्रवाल काव्योक्त-शास्त्रोक्त वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त धार्मिक विशिष्टताओं को क्रमश: नारद-भक्ति-सूत्र और शांडिल्य-भक्ति-सूत्र की वैचारिक विशिष्टताओं से विश्वसनीय रूप से जोड़ते हैं ।उनके द्वारा काव्योक्त कही गई भक्ति ,प्रेम प्रेरित ,उपलब्ध दार्शनिक संप्रदायों से स्वायत्त ,भागीदारी पर आधारित संवेदना है ,जबकि शास्त्रोक्त-भक्ति से अग्रवाल का आशय पारंपरिक संस्कृत शास्त्रों पर निर्भर और पारंपरिक धार्मिक सत्ता के समक्ष समर्पण की संवेदना से है ।
इन तीन वर्गीकरणों : सगुण-निर्गुण ,वर्ण-धर्मी और अवर्णधर्मी और शास्त्रोक्त-भक्ति और काव्योक्त-भक्ति के बीच की भ्रांतियों और उलट-पुलट से बचने का एक सीधा -सा तरीका यह स्वीकार कर लेना हो सकता है कि उत्तर भारत के भक्त कवियों की रचनाओं में धार्मिक,सामाजिक विचारधारात्मक और कलात्मक अंतर सदा साथ-साथ ही उपस्थित हों ,यह जरूरी नहीं ।दूसरे शब्दों में ,संभवत: यह बेहतर होगा कि इनमें सभी कवियों को समानांतर श्रेणियों में रखने पर जोर न दिया जाए ।इस पद्धति से,कबीरकी कविता को निर्गुणी ,अवर्ण-धर्मी और काव्योक्त वर्ग में रखा जा सकता है ।इसी तरह, तुलसीदास के काव्य को ,या कम से कम कुछ भजनों को ,सगुणी ,अवर्ण-धर्मी और काव्योक्त वर्ग में रखा जा सकता है ।
जिसे पुरूषोत्तम अग्रवाल भारत की आरंभिक आधुनिकता का दौर कहते हैं ,उस दौर में ,यानी मोटे तौर पर सन् 1400 से 1650 ई0 के बीच ,उत्तर भारत में विकसित हुई भक्ति-संवेदना की आंतरिक भिन्नताओं की रोचक तुलना यूरोपीय इतिहास के 1650 से 1790 के बीच के दौर अर्थात् तथाकथित यूरोपीय नवजागरण के दौर की एक विशेषता से की जा सकती है ।कुछ ही दिन पहले ,जोनाथन इस्राइल ने एक बहुत मजबूत तर्क प्रस्तुत किया है कि यूरोप में स्पष्ट रूप से दो नवजागरण हुए थे :स्पिनोजा ,डेनिस दिदरो ,डि हालबाक और थॉमस पेन जैसे बौद्धिकों के साथ जुड़ा रेडिकल नवजागरण ,और जॉन लाक ,वाल्त्ेयर ,इमैनुअल कांट और एडमंड बर्क जैसे बौद्धिकों के साथ जुड़ा कंजरवेटिव नवजागरण ।अधिक रेडिकल दिदरो और हालबाक के साथ वाल्तेयर की तुलना करते हुए ,इनके बीच वैषम्य का रेखांकन करने के लिए इस्राइल लिन शब्दों का प्रयोग करते हैं ,उनका उपयोग तुलसीदास और कबीर की तुलना करने के लिए भी ,बिना किसी ज्यादा फेरबदल के लिए किया जा सकता है
(आलोचना त्रैमासिक 46 वें अंक से साभार : मूल अंग्रेजी आलेख का अंग्रेजी से अनुवाद सुधांशुभूषण नाथ तिवारी)
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